भगवान श्री Vishvakarma
परम कृपालु श्री विश्वकर्मा महाप्रभु महासुद तेरस के पवित्र दिन अवतरित हुए थे। इस सृष्टि पर जब किसी भी प्रकार के मानव-प्राणी और कोई भी जीवित चीज नहीं थी, तब पृथ्वी पाताल लोक मे थी, एसा माना जाता था।
पृथ्वी की रचना कैसे की ?
पृथ्वी के ऊपर-नीचे, चारो दिशाओ मे समुद्र जल फेला हुआ था। उस समय आदि-नारायण एसे विराट विश्वकर्मा प्रभु स्वयम ब्रह्म स्वरूप लेकर प्रगट हुए। उन्हों ने शेषनाग के रूप मे पृथ्वी को पानी से बाहर निकाली और समग्र पृथ्वी को अपने शिर पर रख कर स्थिर कर दी।
भगवान विश्वकर्मा ने खुद कछुए का स्वरूप ले कर शेषनाग और पृथ्वी को आधार दिया। उनहो ने विराट स्वरूप ले कर संकल्प के साथ तीन स्वरूप से पुरे विश्व का अदभूत सर्जन किया। इसीलिए वे विश्वकर्मा कहलाए।
भगवान Vishvakarma का विराट स्वरूप :
विश्वकर्मा नाम का अर्थ ही है विश्व के रचयिता देव। संसार के कर्ता, रचयिता भगवान विश्वकर्मा चारहस्त धारी है, और त्रिनेत्र धारी है।
प्रभु विश्वकर्मा हंस पर बैठ ते है। उनके पहले हाथ मे गज है, जिससे जगत के निर्माण को मापा जाता है। गज के 24 इंच यह 24 अवतार है। वह 24 तत्व सुझाव देते है। गज के 1 से 6 इंच का अर्थ है सतयुग, 6 से 12 इंच का अर्थ है द्वापर युग, 12 से 18 इंच त्रेतायुग और 18 से 24 इंच कलियुग का सुचन करते है।
प्रभु के दूसरे हाथ मे सूत्र है, जो एक जीवन रेखा प्रस्तुत करता है। प्राणी सजीव इस सृष्टि पर उनके निर्धारित किए गए कर्म को पूर्ण करने के लिए इस धरती पर रहते है। लेकिन जब वह अपनी जिम्मेदारी से पीछे हठ जाते है तो उनका विनाश होता है।
प्रभु के तीसरे हाथ मे कमंडल है। जो जल पात्र के रूप मे कुम्भ है। कमंडल के जल से इस पूरे संसार का सिंचन किया।
विराट प्रभु विश्वकर्मा ने चोथे हाथ मे पुस्तक धरण किया है। इस पुस्तक मे पूरे ब्रह्मांड की उतपति, स्थिति, भय, प्रलय, महाप्रलय का सम्पूर्ण वर्णन किया गया है।
प्रचलित चार वेदो के बाद का यह वेद गूढ भाषा मे है। जो प्रभु के कर-चरण मे हमेशा रहता है। इसमे ब्रह्म स्वरूप मे बीज मंत्र का वर्णन है। जिसमे 4 वेद, 6 शस्त्र, 18 पुराण, 24 अवतार मिलके कुल मिलाकर 52 होते है। और इन सब मे एक अलग ही ब्रहम स्वरूप का बीजमंत्र का वर्णन मिलता है।
प्रभु विश्वकर्मा पवित्र आत्मा मे बसते है। वे ज्ञान के साथ-साथ बुद्धि का भी प्रदान करते है।
विराट प्रभु विश्वकर्मा के तीन नेत्रो मे से एक नेत्र मे मानव लोक बसते है, तो दूसरे नेत्र मे माया निहित है, और तीसरे नेत्र मे ब्रह्मतेजज्ञान होता है।
प्रभु विश्वकर्मा की पहली नेत्र सत्वगुणी है, जिसके लिए इस संसार की उत्पति हुई है। दूसरे नेत्र मे राजो गुण है, जिससे विश्व का सर्जन होता है। और तीसरे नेत्र तमो गुण से भरा है, जिससे जरूरत पड़ने पर संसार का नाश हो सकता है।
प्रभु Vishvakarma की उपस्थिती :
108 नाम वाले प्रभु विश्वकर्मा की उपस्थिती पूरे संसार मे सभी जगहो पर होती है। जहा-जहा मूर्तिकला, नए आवास की चिनाई एसे कोई भी नए काम की शुरुआत करने से पहले प्रभु विश्वकर्मा को जरूर याद किया जाता है।
भगवान Vishvakarma की रचना :
इस पूरे संसार के स्वामी जिसका कोई आदि नहीं और कोई अंत भी नहीं। हिन्दू सनातन धर्म की मुख्य त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों देवताओ को पृथ्वी पर आवास की व्यवस्था भगवान श्री विश्वकर्मा ने की थी।
ब्रह्माजी के लिए ब्रह्मपुरी नगरी, विष्णुजी के लिए वैकुंठ नगरी और देवाधि देव महादेव के लिए कैलास की रचना भगवान विश्वकर्मा ने की।
सोने की लंका और सोने की द्वारका नागरी की रचना भी भगवान विश्वकर्मा ने की। प्रभु विश्वकर्मा का स्वरूप विराट है, इसीलिए उनको विराट विश्वकर्मा से प्रचलित है।
वृध्ध शरीर के साथ जो हाथ मे औजार पकड़े है। जेसे की मापन , छेनी, हथौड़े, रस्सी, लिली, ब्रश, तारीकर जैसे उपकरण हमे यह बात बताते है, की इस सृष्टि पर की सभी वस्तुओ की रचना, कला, शिल्प कौशल, इंजीनियरिंग, तकनीकी मामलों के साथ-साथ मूर्तिकला लकड़ी का काम, नक्काशी यह सभी कार्य भगवान विश्वकर्मा की देन है। भगवान विश्वकर्मा के पाँच पुत्र है।
भगवान Vishvakarma के पाँच संतान कौन है?
भगवान विश्वकरमा के संतान मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ है।
मनु :
यह भगवान विश्वकर्मा के सबसे बड़े पुत्र है, इनका विवाह करके इनहोने मानव सृष्टि का निर्माण किया, इनके संतान के रुपमे उनके कुल मे अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रह्म आदि ऋषिमुनि ने जन्म लिया था।
मानाजाता है की ‘वास्तु’ विश्वकर्मा प्रभु के सबसे बड़े पुत्र है। पिता विश्वकर्मा ने वास्तु को एसा वरदान दिया की जब कोई नए घर -मकान का सर्जन करेगा तो हमेशा तेरी पूजा होगी। वास्तु का पूजन करने के बाद जो कोई भी गृह प्रवेश करेगा, उनके निवाश मे सभी अशुध्धिया दूर हो जाएगी, और उसका घर समृद्धि से भर जाएगा।
मय :
यह भगवन विश्वकर्मा के दूसरे पुत्र है, इनकी शादी के बाद इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना की थी। इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है ।
त्वष्ठा :
यह भगवान विश्वकर्मा के तीसरे पुत्र थे। उनकी शादी हो जाने के बाद, कुल मे लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि ने जन्म लिया था। जिसे देवताओं में पुजा जाता था।
शिल्पी :
यह भगवान विश्वकर्मा के चौथे पुत्र थे। उनकी शादी के बाद इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि ने जन्म लिया था। इनकी कलाओं का वर्णन हमारे मानव जाति तो क्या इसका वर्णन देवगण भी नहीं कर पाये थे।
देवज्ञ :
यह भगवान विश्वकर्मा के पांचावे पुत्र थे। उनकी शादी हो जाने के बाद उनके कुल मे सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी ऋषिओ ने जन्म लिया था।
यह पाँच पुत्रो की बात की जाए तो उनके अपने ओजर जैसे की छीनी, हथौड़ी और अपने हाथो की उंगलिया से बनाए गए शिल्प कलाए को अगर देखा जाए तो वह दर्शको को चकित कर देती है। भगवान विश्वकर्मा के इन पांचों पुत्रो ने अपने वंशजो को यह सब कार्य सोंप दिया था, इसी लिए आज हम देखे तो उनके कामो को यह वंशज संभालते चले आ रहे है।