श्री गणेशजी ने अपने भक्तो पर आए किसी भी प्रकार के विघ्नो को दूर करने के लिए कई अवतार को अपनाया था। जिसमे से उनके मुख्य आठ अवतार निम्न लिखीत है। –
[1] वक्रतुंड :
इंद्र राजा की लापरवाही के कारण, मत्सर नाम का एक असुर पैदा हुआ था। मत्सर को गुरु शुक्राचार्यजी से ‘ॐ नमः शिवाय’ का मंत्र मिला। इस असुर मत्सर की कठोर तपस्या से महादेवजी प्रसन्न हुए, और मत्सर को वरदान दिया की ‘उसे किसी का भी डर नहीं रहेगा’।
शुक्राचार्य ने मत्सर को दैत्यराज की उपाधि दी। मत्सर ने दुनिया को जीतने का तय किया। पृथ्वी के राजाओ मत्सर के सामने टिक नहीं पाए। इस की वजह से मत्सर का इस पृथ्वी पर एक तरफा राज शुरू हो गया।
इस के बाद मत्सर ने पाताल लोक पर हमला किया। असुर मत्सर के सामने शेषनाग ने हार स्वीकार कर ली। मत्सर यहा तक रुका नहीं। अब उसने देवलोक पर हमला किया, देवो को भी पराजित कर दिया। फिर मत्सर स्वर्ग का भी अधिपति बन गया।
असुरो से हारे सभी देवगण कैलास पहुचे, और महादेवजी को सारी बाते बताई। मत्सर को इस बात का पता चला तो उसने कैलास पर भी अपना कब्जा जमाने का फेसला किया। थके-हारे देवताओ ने असुरो को हराने और उसका विनाश करने का उपई ढूँढने लगे, तब भगवान दत्तात्रेयजी ने देवताओ को सहाय की। उन्होने देवताओ को वक्रतुंड, गणपजी का पहल अक्सर ‘ग’ का मंत्र दिया और अनुष्ठान करने का सुझाव दिया।
देवो के अनुष्ठान से प्रसन्न हो कर तुरंत फल देनेवाले ‘वक्रतुंड’ प्रकट हुए। उन्होने देवो को स्वस्थ होने के लिए कहा, और उनके असंख्य सेनाओ ने मत्सर पर हमला किया और उसे पराजित कर दिया। राक्षसो ने आत्मसमर्पण कर दिया इसलिए वक्रतुंड ने उनको जीवनदान दिया और देवो को निडर बनाया।
[2] एकदंत :
च्यवनऋषि ने मद को उतपन किया, मद पाताल लोक मे शुक्राचार्यजी के पास गया। प्रणाम करके कहने लगा, ‘मुझे अपना शिष्य बना लो। मुझे पूरा ब्रह्मराज पसंद है, आप मेरी मनोकामना पूरी करो’।
शुक्राचार्यजी ने मद को शिष्य के रूप मे स्वीकार किया, और (ह्री) शक्ति मंत्र दिया। भयानक जंगल मे ही मद ने कठोर तप करना शुरू किया। उसके कई सालो के तप से प्रसन्न हो कर आदिशक्ति भगवती सिंहवाहिनी प्रकट हुए, और उसे वरदान दिया की, ‘ सम्पूर्ण ब्रह्मांड का राज्य प्राप्त होगा’।
मद वरदान पा कर अपने राज्य मे आया, और पूरे ब्रह्मांड पर विजय होने के लिए निकल पड़ा। सभी जगहो पर असुरो का साम्राज्य हो गया। सभी देवताओ और ऋषिओ को चिंता होने लगी। हतास हुए देवताओ सनत्कुमार के पास गए। उन्होने देवो को एकदंत की भक्ति पूर्वक उपासना करने के लिए कहा।
सनत्कुमार के उपदेश के अनुसार देवताओ ने एकदंत की उपासना शुरू की। उनकी भक्ति-भाव से प्रसन्न हो कर मूषक पर एकदंत प्रकट हुए, देवताओ ने अपने विघ्न को नष्ट करने की विनती की।
एकदंत ने देवो को निर्भय बनाया और मदासूर की नगरी की ओर गए। एकदंत के साथ मदासूर ने युद्ध किया और मदासूर हार गया। एकदंत ने मदासूर से कहा जहा पर मेरी पुजा होती है वहाँ पर तुम मत जाना, और जहा पर राक्षसी कार्य होता है वहा पर ही जा कर विनाश करना।
[3] महोदर :
अति प्राचीन समय मे तारकासूर नाम का अत्यंत डरावना असुर उत्पन हुआ था। उन्हे ब्रह्माजी ने वरदान दिया था, इसलिए वह स्वर्ग, मृत्युलोक और पाताल का स्वामी बन गया था। उसके शासन मे देवताओ और ऋषिओ की स्थिति बहुत ही बुरी हो गई थी। वे लोग कई कष्टो को सहन कर के जगलों मे छिपे रहते थे।
ऋषिओ और देवताओ ने इस संकट से मुक्त होने के लिए भगवान शिव का ध्यान किया लेकिन भगवान शिव तो समाधि मे लिन थे इसलिए वे लोग माता पार्वती को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया।
माता पार्वतीजी अतिशय स्वरूपवान भीलड़ी का रूप ले कर भगवान शिवजी के पास गए। भगवान शिवजी ने पर्वतीजी की लीला को देखा और कामदेव के ऊपर गुस्सा हो कर उसका शरीर जला दिया।
शापमुक्त होने के लिए कामदेव महोदर की स्तुति करने लगे। प्रसन्न हो कर महोदर ने कहा की मै शिवजी के शाप का सम्पूर्ण निवारण तो नहीं कर शकता लेकिन तुम्हें दूसरा शरीर दे शकता हूँ, और रहने के लिए स्थान बताता हुआ। जहा पर जवानी, फूल, और खुशबू होगी वहाँ पर तुम्हारा स्थान होगा। गीत, रस, पक्षियों की धुन, उद्यान, चंदन और वसंत आपके ठहरने के लिए सुंदर स्थान होंगे, जब कामदेव ने अधिक प्रार्थना की, तो महोदर ने कहा, कि श्री कृष्ण अवतार मे तुम्हारा जन्म उनके पुत्र प्रद्युमन के रूप मे होगा।
शिवजी के पुत्र कार्तिकेय ने गणेशजी को प्रसन्न किया। गणेशजी ने वरदान दिया की, तुम तारकासुर का वध करोगे। यह वरदान ले कर महा-पराक्रमी कार्तिकेय ने तारकासुर का नाश करके देवो और ऋषिओ को आनंद दिया।
[4] गजानन :
एक दिन देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर कैलास गए। वहा पर उन्होने भगवान शिव के दर्शन किए। अतिसुन्दर एसे माँ पार्वती को कुबेर लालच की नझर से देखने लगा। यह देखकर माँ पर्वतीजी को बहुत गुस्सा आया। कुबेर चिंतित हो गया और माता के क्रोधाग्नि से बचने के लिए उसने लोभासुर नाम के भयानक असुर को उत्पन किया।
लोभासुर गुरु शुक्राचार्य के पास गया, गुरु ने उसे ‘नमः शिवाय’ का मंत्र दिया। जंगल मे जा कर लोभासुर ने कठोर तप किया। इसके तप से महादेव प्रसन्न हुए, और सर्वथा निर्भय होने का वरदान दिया। इस से लोभासुर ने स्वर्ग और पृथ्वी दोनों पर अपना साम्राज्य स्थापित किया।
देवो बहुत ही दुखी हो गए आखिर मे उन्होने श्री गणेशजी की उपासना शुरू की, देवो की आराधना से प्रसन्न हो कर गजानन प्रकट हुए। फिर देवो को कहा की मै लोभासुर को पराजित करूंगा।
लोभासुर को जब लगा की वह देवाधिदेव गणेशजी का सामना नहीं कर शकता, तब वह शरण मे आ गया। गणेशजी ने देवो, ऋषिओ और असुरो को शांत और स्वस्थ बनाया।
[5] लम्बोदर :
भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर कामदेव को भस्म करने वाले भगवान शंकर मुग्ध हो गए। यह देख कर मोहिनी रूप का त्याग कर श्री विष्णु हसते-हसते प्रकट हुए। जब मोहिनी का रूप गायब हो गया, तो शिव उदास हो गए लेकिन उनका वीर्य स्खलित हो गया। इस मे से क्रोधासूर नाम का महा बलवान राक्षस पैदा हुआ।
क्रोधासुर शुक्राचार्य का शिष्य बना। क्रोधासुर ने आचार्यजी को वंदन करके कहा की आपकी आज्ञा हो तो मै ब्रह्मांड पर विजय पा ना चाहता हु। गुरुजी ने उन्हे सूर्यमंत्र दिया। क्रोधासुर अरण्य मे जा कर एक पैर पर खड़े रह कर सूर्यमंत्र का जाप किया।
इस असुर का हजारो सालो का दिव्य तप देखकर सूर्यदेव प्रसन्न हुए, और दर्शन दिये। वरदान मांगने के लिए कहा। क्रोधासुर ने कहा, मै कभी नहीं मरू, पूरे ब्रह्मांड को जीतू, ‘मै’ अद्वितीय उपलब्धि हासिल करू। क्रोधासुर की माँग भयावह थी, लेकिन फिर भी सूर्य देव ने कहा, तुम्हारी इच्छा सफल होगी।
वरदान पा कर क्रोधासुर घर गया। उसने अपने सैनिको को ले कर विजय होने के लिए निकल पड़ा। उस ने पहले पृथ्वी को जीती, फिर स्वर्गलोक पर जीत हासिल की। देवो और ऋषिओ दुखी हो कर आखिर मे विघ्नेशवर गणेशजी की आराधना की। उनकी आराधना से संतुष्ट हो कर लंबोदर प्रकट हुए। उन्होने देवो और ऋषिओ को निश्चिंत होने के लिए कहा।
लंबोदर और क्रोधासुर के बीच युद्ध हुआ, क्रोधासुर के सभी सैनिक मारे गए। आखिर मे क्रोधासुर हार गया और लंबोदर के शरण मे आ गया। लंबोदर ने क्रोधासुर को पाताल मे निवास करने के लिए कहा। देवो और ऋषिओ को निर्भय और निश्चिंत किया।
[6] विकट :
एक बार जलंधर की पत्नी वृंदा ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम कामासुर रखा गया। कामासुर दैत्य गुरु शुक्राचार्य से मिले और तप करने के लिए वन मे चला गया।
वन मे जा कर महादेव को प्रसन्न करने के लिए अन्न-जल का त्याग कर के तप किया। कई सालो के बाद महादेव प्रसन्न हुए और कामासुर को वरदान मांगने के लिए कहा। कामासुर ने बलवान, निर्भय, मृत्युंजयी और पूरे ब्रह्मांड के राज्य की मांग की।
महादेवजी बोले तुम ने अत्यंत दुर्लभ और देवो को दुख हो एसा वरदान मांगा है, लेकिन मै तुम्हारे तप से प्रसन्न हु, इसलिए तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करता हु।
कामासुर अपने नगर मे आया। फिर वहा से अपने साथियो को ले कर तीनों लोक पर विजय हो ने के लिए निकल पड़ा। शिवजी के वरदान से वह सभी जगहो पर विजय हुआ। सभी जगहो पर धर्म-कर्मो का नाश हो गया। देवो और ऋषिओ दुखी हो गए। वे लोग मुगदल ऋषि के पास गए। उन्होने श्री गणेशजी को प्रसन्न करने के लिए तप करने के लिए कहा।
सभी देवो और ऋषिओ सिद्धक्षेत्र मे जा कर गणेशजी का स्तवन करने लगे। उनके आर्तनाद को सुन कर भक्तवत्सल गणेशजी प्रसन्न हुए और कहा की आप अपना इच्छित फल मांगो। देवताओ ने कामासूर के भय से मुक्त होने की मांग की। श्री गणेशजी ने कहा की मे अवश्य कामासूर का वध करूंगा।
शक्तिशाली विकत गणेशजी से कामासूर हार गया और शरण मे आ गया।
[7] विघ्नराज :
एक बार माता पर्वतीजी के हास्य मे से एल विशाल तेजस्वी पुरुष का जन्म होता है। पर्वतीजी स्तब्ध रह गए। उन्होने उनसे पूछा की आप कोन हो, कहा से आए हो? वह पुरुष ने कहा की मै आपके हास्य मे से जन्मा आप ही का पुत्र हु, आप जो कहेंगे वह मै करूंगा।
माता पार्वती ने उस का नाम ममता रखा, और कहा की आप जा कर गणेशजी की उपासना करे। जिस से आपकी इच्छा पूरी होगी। फिर माता ने गणेशजी का मंत्र दिया। ममता माता को वंदन कर के वन मे तप करने के लिए निकल पड़ा।
ममता बड़े ही भक्तिभाव से श्री गणेशजी की स्तुति करने लगा। उसकी भक्ति से खुश हो कर विघ्नराज गणेशजी ने ममता को वरदान दिया, युद्ध तुम्हारे लिए कभी संकट नहि लाएगी, तुम सब से अजेय बनोगे और तुम्हें अमोघ शस्त्र प्राप्त होगा।
वरदान पा कर ममता शबर राक्षस के पास पहुचा। उस ने अपनी बेटी का विवाह ममता से करवाया। शुक्राचार्य ने ममता को दैत्याधीश के रूप मे स्थापित किया। इस के बाद ममता पूरे ब्रह्मांड को जीतने के लिए गुरु से प्रार्थना की। गुरुजी ने कहा की तुम ब्रह्मांड पर विजय पाना चाहते हो, कोई बात नहीं लेकिन विघ्नराज का कभी भी विरोध मत करना। यह शक्ति तुम्हें विघ्नराज की कृपा से ही मिली है, यह याद रखना।
ममतासुर अपने सामर्थ्य से त्रैलोक्य का स्वामी बन गया। फिर सभी जगहो पर अनीति फेल गई। देवो दुखी हो कर विघ्नेश्वर को प्रसन्न करने के प्रयास करने लगे। भदरवा सुत चोथ के दिन शेषवाहन विघ्नराज प्रकट हुए और देवताओ की बाते सुन कर उनको इच्छित फल दे कर चले गए।
यह बात ममतासुर को पता चली तो वह गुस्सा हो गया। ममता के पास नारदजी गए और कहा की तुम अधर्म छोड़ कर विघ्नराज के पास उनकी शरण मे जाओ, नहीं तो सर्वनाश होगा। उसी समय शुक्राचार्यजी ने भी आ कर मामतसूर को समजाया लेकिन वो नहीं माना।
ममतासुर ने किसी की बात नहीं मानी और विघ्नेश्वर से युद्ध करने के लिए उतावला हो गया। दैत्य सेना को देख कर विघ्नराज ने अपना कमल छोड़ा। जिससे सभी असुर मूर्छित हो गए। ममतासुर जब होश मे आया तो सामने कमल दिखा, वह डर गया और विघ्नराज के शरण मे आ गया।
[8] धूम्रवर्ण :
सूर्यदेव की छिक मे से जन्मे अहमासूर एक बार दैत्य गुरु शुक्राचार्य के पास गया। उन्होने अहम को गणेश मंत्र दिया। वह जंगल मे जा कर तप करने लगा। अहम की भक्ति को देख कर भक्तवत्सल गजानन प्रकट हुए और अपनी इच्छा पूछि, तो अहम ने कहा की मुझे उत्तम स्वास्थ्य मिले, अमोघ अस्त्र मिले और पूरे ब्रह्मांड पर मेरा विजय हो। गणेशजी वरदान दे कर चले गए।
अहम ने अपना एक नगर बसाया। प्रमदासुर ने अपनी बेटी ममता के साथ अहम का विवाह करवाया। कितने दिनो के बाद अहमासूर को उसके ससुर ने कहा की तुम बैठे क्यो हो? ब्रह्मांड पर विजय होने की तैयारी करो। यह बात अहम को पसंद आई। फिर वो विजय होने के लिए निकल पड़ा।
बलवान आसुरी सेना को ले कर अहमासूर ने तीनों लोगो पर विजय प्राप्त किया। देवो, ऋषिओ जंगलो मे छिपते फिरने लगे। सभी जगहो पर अधर्म फेल गया। अहम अपने आराध्यदेव विघ्नराज को भी भूल गया।
असुरो के अधर्मी व्यवहार से थके देवो ने मिल कर गणेशजी की आराधना की। उनकी आराधना से दयालु धूम्रवर्ण प्रकट हुए। देवोने वंदन करके धूम्रवर्ण को अपने सारे कष्ट बताये, और अपना दुख दूर करने के लिए कहा। धूम्रवर्ण ने सभी संकट नाश होगा यह कह कर वहा से चले गए।
एक रात को अहमासूर नींद मे था तब उसके सपने मे धूम्रवर्ण दिखे, और असुरो को भस्म करने का भय बताया। सपना पूरा हुआ। लेकिन अहम फिर से वैसा ही राक्षस बना रहा। दयालु गणनायक धूम्रवर्ण ने अहम को समजाने के लिए नारदजी को भेजा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
गजानन धूम्रवर्ण गुस्सा हो कर अपने हाथ का पाश छोड़ा। जिस से सभी असुरो की मृत्यु हो गई। अहमासुर के पास कोई रास्ता नहीं बचा। वह भाग कर आखिर मे विघ्नेश्वर धूम्रवर्ण की शरण मे गया। इस प्रकार विघ्नेशवर धूम्रवर्ण ने देवो, ऋषिओ और धर्मात्माओ को विघ्नो से मुक्त किया और अधर्म-अनाचार को दूर किया।