कर्म का फल भोगने के लिए हमें क्या करना पड़ता है ?
अच्छे कर्मों का फल भोगने के लिए व्यक्ति को शरीर ग्रहण करना पड़ता है, और पाप कर्मों का फल भोगने के लिए भी शरीर को ग्रहण करना पड़ता। फल भोगने का साधन शरीर है।
शरीर ग्रहण करने पर ही फल भोग सकते है। इसलिए शुभ या फिर अशुभ कर्मो के फल को भोगने के लिए शरीर को ग्रहण करना पड़ता है, और इसीलिए जन्म और मृत्यु के चक्र से गुजरना पड़ता है।
मोक्ष किसे कहते है?
जब तक जन्म और मृत्यु का चक्र रहता है तब तक मोक्ष नहीं माना जाता है। “मोक्ष उस स्थिति का नाम है जहां शरीर को ग्रहण नहीं करना पड़ता है” और जब तक संचित कर्म में शुभ या अशुभ कर्मों के ढेर लग जाते हैं, और इसे पूरी तरह से दूर नहीं किया जाता है, तो यह विश्वचक्र जारी रहेगा।
शरीर को ग्रहण करना पड़े यही एकमात्र वास्तविक बंधन है। शुभ कर्मों के फल के रूप में सुख भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है, वह सोने की चेन और अशुभ कर्मो के फल के रूप मे दुख भुगतना पड़ता है वह लोहे की जंजीर है।
लेकिन अच्छे और बुरे दोनों कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को शरीर ग्रहण करने के लिए मजबूर किया जाता है और इस तरह से शुभ या अशुभ दोनों कर्म यानी कर्म ही जीवन को बांधते हैं।
वही जीवन जन्म और मृत्यु के बंधन से बंधा है। फिर चेन सोने या लोहे की हो सकती है, लेकिन अंत में बंधन बना रहता है। यदि आप सच्चे मन से दान करते है, तो उसके फल के रूप मे सुख भोग ने के लिए शरीर ग्रहण करना पड़ता है, और बुरे मन से दान करते है तो उसके फल के रूप मे भी दुख भोग ने के लिए शरीर ग्रहण करना पता है।
संसारचक्र तो चलता ही रहता है और उस मे जीवन भी चलता ही रहता है। मोक्ष मिलना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि नए-नए क्रियमाण कर्म होते ही रहते है।
उसमे से जो तुरंत फल नहीं देते वह कर्म संचित कर्मो मे संचय हो जाते है जैसे-जैसे संचित कर्म परिपक्व होते हैं और भाग्य होते जाते हैं, उतने ही फल के रूप मे भाग्य बनकर शरीर जीवन ग्रहण करता है।
और अपने पूरे जीवन के दौरान दूसरे कई सारे जन्म लेने पड़े उतने नए क्रियमाण कर्म करते रहते है।
इस प्रकार संसारचक्र अनादिकाल से चला आ रहा है, और अनंतकाल तक चलता ही रहेगा। महर्षि पतंजलि के अनुसार –
“जब तक कर्म के रूप में एक जड़ है, तब तक शरीर के रूप में एक वृक्ष विकसित होगा और जाति, जीवन और भोग के रूप में फल देगा”।
कर्म के नियम में कोई माइनस नहीं होता :
कई लोग एसा समझते है की अगर हम थोड़ा पाप कर्म करते है, तो उससे ज्यादा पुण्य का काम भी कर लेंगे। मगर यह गणित गलत है,
अगर हम पुण्य कर्म भी करते है तो उसके लिए भी हमे मानव शरीर ग्रहण करना पड़ेगा, और पाप कर्म करते है तो उसके लिए भी हमे शरीर को ग्रहण करना ही पड़ेगा।
तो फिर मोक्ष कब?
मानव ही मुक्ति का एकमात्र अधिकारी है, और मानव शरीर केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही मिलता है। मानव शरीर ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त करले तो फिर चौरासी लाख योनियो मे फिर भटकना नहीं पड़ता है।
मनुष्य अगर चाहे तो वह मानव शरीर के बंधन से मुक्त हो कर परब्रह्म मे लिन हो जाने मे सक्षम है और वह स्वतंत्र भी है। क्योंकि परात्पर ब्रह्म का अंश होने के नाते, उसमें लीन होना और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही वह निर्मित होता है।
लेकिन जब-तक वह अपने पूरे भाग्य को भोग नहीं लेता और इसके पीछे के अनादिकाल के कई जन्मो के संचित कर्मो को साफ नहीं कर लेता, भस्म नहीं कर लेता तब तक उसे बार-बार शरीर को ग्रहण करना ही पड़ेगा, तब तक उसे मोक्ष नहीं मिलता।
इस के लिए उसे अपने जीवन के दौरान एसे क्रियमाण कर्म करने होंगे जिसे करते ही तुरंत फल मिल जाए और शांत हो जाए, जिससे एक भी क्रियामाण संचित कर्म मे संचय ना हो।
जिससे भविष्य मे संचित कर्म भाग्य के रूप मे सामने न आए, उसे भोग ने के बाद कोई भी शरीर को ग्रहण करना नहीं पड़ता है।
योग किसे कहते है?
हमारे जीवन की मुश्किले यह है की चल रहे जीवन काल के दौरान हम एसे कई कर्म करते है, जिसे भोग ने के लिए दूसरे जन्म को ग्रहण करना ही पड़ता है। इसलिए यह विषय चक्र समाप्त ही नहीं होता है।
इसलिए तो ‘इस जीवन काल के दौरान जो-जो क्रियमान कर्म करे वह इतनी कुशलता से करे की कोई भी कर्म संचित ही न हो, और इससे भविषय मे नए शरीर के बंधन मे ना डाले। बस, एसे निपुणता से कर्म करने को ही “योग” कहते है’।
इसीलिए गीता मे भगवान ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी है, “योगः कर्मसु कौशलम”। –
क्रियमान कर्म निपुणता से करे उसे ही योग कहते है।
अगर हम कोई कर्म ही न करे तो…
यदि कोई यह तर्क देता है कि मैं अपने जीवनकाल में कोई कर्म नहीं करूंगा, तो संचित कर्म में कर्म संचय का कोई प्रश्न ही नहीं रहेगा और भाग्य के रूप मे उसे भोग ने का भी कोई सवाल नहीं रहेगा।
इसलिए शरीर ग्रहण नहीं करना पड़ेगा। तो अपने आप मोक्ष हो जाएगा और शरीर से मुक्ति हो जाएगी।
यह तर्क गलत है, मनुष्य कर्म किए बिना रह ही नही शकता। भगवान गीता मे स्पष्ट करते है की, कोई भी मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रह शकता, यदि वह कर्म नहीं करता है तो उसकी शरीर यात्रा रुक जाएगी।
स्नान करना, खाना, पीना, उठाना, बेठना, बोलना, सो जाना, देखना, सांस लेना, जीविका के लिए काम करना, व्यवसाय करना आदि एसे कई कार्य करने ही पड़ते है, इसलिए कर्म तो जन्म से मृत्यु तक करने ही पड़ते है।
लेकिन क्रियमाण कर्म निपुणता से करने होंगे, जिससे कर्म तुरंत ही फल देकर शांत हो जाए और संचित कर्म मे संचय ना हो। तो वह कर्म भविष्य मे भाग्य के रूप मे भोगने के लिए दूसरे शरीर को ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं रहे।
इसलिए मनुष्य को एसे कर्म करने होंगे जिससे संचित कर्म मे संचय नहीं हो।