वेद-उपनिषद मे कहा गया है क, ‘द्वे वाव ब्रह्मणो रूप: मूर्तश्च अमूर्तश्च’ – अर्थात ब्रह्म के दो रूप है, एक मूर्ति स्वरूप और दूसरा अमूर्त स्वरूप। इसी प्रकार भगवान शिवजी के भी दो रूप है, एक साकार और दूसरा निराकार।
शिवलिंग यह भगवान शिव के निर्गुण और निराकार स्वरूप का प्रतीक है। यह ब्रह्म, आत्मा और ब्रह्मांड का भी प्रतीक है। वायुपुराण दर्शाता है की, सर्जनकाल मे समस्त सृष्टि शिवलिंग मे से ही उत्पन होती है, और प्रलय काल मे शिवलिंग मे ही लिन हो जाती है। शिवजी के साकार स्वरूप के साथ दूसरी कई वस्तुए सदा ही जुड़ी रहती है, इन सब का विशेष तात्पर्य है।
चंद्र :
शिवजी के मस्तक पर रहे चंद्र मन का प्रतीक है। अप्रगत, अनंत, अवचेतन अवस्था को प्रगत जगत मे व्यक्त करने के लिए मन की जरूर पड़ती है। इस चंद्र को शिवजी ने अपने मस्तक पर धारण किया है। इस लिए उनका नाम चन्द्रशेखर है। शिवजी के मस्तक पर बिराजित चंद्र मन के नियंत्रण का प्रतीक है।
डमरू :
शिवजी के स्वरूप के साथ डमरू जुड़ा है, जो ब्रह्मांड का प्रतीक है। हमारे दिल की धड़कने सीधी रेखा मे नहीं धड़कता इसकी एक लय होती है, जो ऊपर-नीचे होता रहता है। पूरी दुनिया मे एसी लय प्रबल है। ऊर्जा ऊपर उठती है और नीचे गिरती है। उतार-चढ़ाव का यह क्रम जारी रहता है।
डमरू का आकार भी इसी बात को सूचित करता है। शुरू मे उसका आकार फैला-चौड़ा होता है। फिर सिकुड़ जाता है। डमरू ध्वनि का उद्गम स्थल है। ध्वनि लय और ऊर्जा दोनों है। डमरू ब्रह्मांड की अद्वैत प्रकृति का प्रतीक है।
शिवजी के डमरू से संगीत के सात सुर प्रगत हुए है। उसी मे से वर्णमाला के अक्षर उत्पन्न हुए है। इसकी ध्वनि से ही समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति होती है, और उसी ध्वनि को ब्रह्म कहते है।
त्रिशूल :
भगवान शिवजी के हाथ मे त्रिशूल देखने को मिलता है। यह चेतना की तीन अवस्था जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से पर हो कर तुरीय अवस्था मे जाने का प्रबोधन देता है। यह सत्य, रजस और तमस इन तीन गुणो से परे हो कर श्रेष्ठता का संदेश देता है।
शिवजी का त्रिशूल आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक त्रिविध दुखो और पीड़ाओ का निराकरण करता है।
भगवान शिवजी के शरीर का भस्म :
भगवान शिवजी अपने शरीर पर भस्म लगाते है। भस्म इस संसार की निःसारता का बोध करता है। भस्मीभूत शरीर का मोह न रखने का संदेशा दे कर मन को विरक्त करता है।
भगवान शिवजी के गले का नाग :
शिवजी को नागेन्द्रहाराय भी कहा जाता है। शिवजी के गले का हार वासुकि नाग है। भगवान शिवजी योगिओ के ईश्वर है। योग मे कुंडली की शक्ति को सर्पिणी का रूपक दिया गया है। गले मे विशुद्ध चक्र होता है, जो बाहर के हानिकारक जहरीले प्रभावों को शुद्ध करता है। भगवान शिवजी के गले मे धारण किया गया नाग इस बात को सूचित करता है।
नंदी :
नंदी भगवान शिवजी के वाहन है। शिवालयों मे शिवजी के मूर्ति के सामने नंदी की भी मूर्ति प्रस्थापित की जाती है। नंदी शिवजी के भक्त, साथी और सभी गणो के अधिपति भी है। नंदी पवित्रता, विवेक बुद्धि, ज्ञान, भक्ति और कर्म का प्रतीक है।
नंदी की आंखे भगवान शिवजी के सामने ही रहती है। यह भगवान शिवजी की उपस्थिति और एकाग्र नजर से ध्यान करने का संकेत देता है। शिवजी को नंदीश्वर भी कहा जाता है।
शिवजी ज़्यादातर समाधि मे लिन रहते है, इस लिए उनके भक्तो की आवाज नंदी उन तक पहुँचाती है। इसी कारणवश शिवालयों मे भक्त अपनी प्रार्थना या फिर याचना नंदी के कान जा कर कहते है। नंदी उन प्रार्थनाओ को भगवान शिवजी के पास पाहुचाते है। सभी प्रार्थना अपने प्रिय मित्र नंदी के माध्यम से कही जाती है, और शिवजी उन्हे पूरा करते है।
कछुआ :
शिव मंदिरो मे शिवलिंग के सामने नंदी के जैसे कछुए का स्वरूप भी स्थापित किया जाता है। नंदी धर्म और विचार का प्रतीक है और कछुआ संकल्प और विचार का प्रतीक है। नंदी शारीरिक कर्म का सुझाव देते है जब की कछुआ मानसिक चिंतन से जुड़ा है।
कछुआ संयम, संतुलन, स्वस्थ आधार और अनन्य आश्रय धारण करने का बोध देता है। समुद्रमंथन जैसे मुश्किल कार्य के समय भगवान विष्णु ने कछुए का अवतार लेकर मंदराचल पर्वत को अपनी अत्यंत मजबूत पीठ पर रख कर कार्य सफल किया था।
शिवालय के कछुए यह सूचित करते है की, भगवान शिवजी को साक्षात करने के लिए हठयोग का महान कराय केवल द्रध मनोबल और द्रध संकल्प के साथ ही किया जा शकता है।
इसीलिए कहा गया है की, ‘क्रिया सिद्धि सत्वे भवति महतां नोपकरने’ – अर्थात महापुरुषों की क्रिया सिद्धि उनके आत्मबल, मनोबल से ही होती है, किसी बाह्य साधन से नहीं।